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Sarvesh Kumar Sharma Advocate (Advocacy)     03 July 2011

दुनिया के पतियो एक हो जाओ

आजकल सबकी सुनवाई है, पति गरीब की नहीं। यह हाल तो पुरुषों के तथाकथित राज में है। अगर स्त्रियों का राज आया, जो एक दिन अवश्य आएगा, और यही हाल रहा, तो उस दिन हम लोगों की दशा क्या होगी, इसे कोई नहीं कह सकता।
देखिए, मालिक के मुकाबले में आज मजदूर को शह दी जाती है, सवर्ण के मुकाबले में अवर्ण तरज़ीह पाता है और गोरों के मुकाबले दुनिया की सहानुभूति कालों के पक्ष में तो हो सकती है, लेकिन पत्नी के मुकाबले में कोई भी निष्पक्ष न्यायाधीश बेचारे पति की हालत पर विचार करने को तैयार नहीं है। गोया जन्म से ही पतियो को, आजकल की पढ़ी-लिखी व तरक्की-पसंद दुनिया जरायमपेशा मानकर चलती है।
यह मान लिया गया है कि स्त्रियां दबाई गई हैं, सताई हुई हैं और उन्हें उभरने का, आगे बढ़ने का पुरुष वर्ग यानी पति लोग, मौका नहीं देते। देना भी नहीं चाहते। यह भी कहा जाता है कि स्त्री करुणा, ममता और क्षमा की मूर्ति है। यह संतोष, समर्पण और स्नेह जैसे दैवी गुणों से ओतप्रोत है और पुरुष यानी पति के भाग्य में तो बस छल, अविश्वास और स्वार्थ जैसे शब्द पड़े हैं। इन नारों और निष्कर्षों में झूठ-सच किस मिकदार में है, यह आप स्वयं जानते होंगे। मैं इनकी तफ़तीश में नहीं जाना चाहता। दूसरों की आंखों के तिनकों को हटाने से भी क्या लाभ, मैं अपने शहतीर की ख़बर लेता हूं। सौभाग्य से मैं भी एक पति हूं। गृहस्थी की गाड़ी में जुते काफी दिन होगए। अगर मेरी आवाज़ में ज़रा भी दम है और अगर वह आपकी सहानुभूति के स्तर को तनिक भी छू सकती है,तो भाइयो और बहनो, पतियो और पत्नियो, पूरे जोर के साथ, भुजा उठाकर कहता हूं पत्नी नहीं, आज पति सताया हुआ है। शासित और शोषित आज पत्नी नहीं, पति है। पतियों के जुल्म के दिन तो हवा हुए। अगर हमें मानवता की रक्षा करनी है तो पहले सब काम छोड़कर पत्नियों के जुल्मों से असहाय पतियों की रक्षा करनी होगी।
घर में पत्नी के आते ही एक ओर मां, बहन और भाभी ने मुझे खुलेआम जोरू का गुलाम कहना आरंभ कर दिया है। तो भी मुझे यह तसल्ली नहीं कि कम-से-कम घरवालों की इस घोषणा से श्रीमतीजी को तो प्रसन्नता होगी ही। उलटा उनका आरोप यह है कि मैं मां, बहनों और भावजों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता हूं और जैसा कि मुझे करना चाहिए, उनकी तरफदारी नहीं करता। मां कहती है कि लड़का हाथ से निकल गया, बहन कहती है भाभी ने भाई की चोटी कतर ली। भाभी कहती है-देवरानी क्या आई, लाला तो बदल ही गए। लेकिन पत्नी का कहना है कि तुम दूध पीते बच्चे तो नहीं, जो अभी भी तुम्हें मां के आंचल की ओट चाहिए। बताइए, मैं किसकी कहूं ? किसका भला बनूं ? किसका बुरा बनूं ? वैसे तो सभी नारियां शास्त्रों की दृष्टि से पूजनीय हैं, मगर मेरा तो इस जाति ने नाक में दम कर रखा है।
अगर मेरे इस कथन में तनिक भी सच्चाई की कमी महसूस हो, तो मैं इस प्रश्न के फैसले के लिए किसी भी पंचायत में, किसी भी जांच अदालत में ही नहीं, यू.एन.ओ. तक में जाने को तैयार हूं कि वह अपने निष्पक्ष निर्णय के द्वारा संसार के पतियों में जनमत संग्रह कराकर इस बात को बताए कि पति-समाज की दशा संसार में कितनी दयनीय है ? शायद, मेरे इस कथन में कुछ देवियों को अतिशयोक्ति दिखाई दे। कुछ हास्यरस का लेखक समझकर मेरे इस मार्मिक निबंध को भी हंसी में दरगुज़र करना चाहें,पर मैं एकदम गंभीर भाव से



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 3 Replies

Sarvesh Kumar Sharma Advocate (Advocacy)     03 July 2011

पत्नी एक समस्या

मेरी पत्नी मेरे लिए ही नहीं, मेरे पाठकों के लिए भी एक समस्या है। मेरी बात तो फिलहाल छोड़िए, मेरी पत्नी के संबंध में मेरे पाठकों ने भांति-भांति के विचार बना लिए हैं। उनके शील और स्वभाव के बारे में ही नहीं,रूप के संबंध में भी प्रतिदिन कहीं-न-कहीं से कोई 'इन्क्वायरी' आती ही रहती है।
यह तो मैं ठीक से नहीं कह सकता कि मेरी डाक की तादाद किस फिल्मी तारक या तारिका से कितनी कम है, लेकिन एक विशेषता उसमें अवश्य है कि जहां अभिनेता और अभिनेत्रियों को मीठे और प्रेम भरे पत्र ही मिला करते होंगे, वहां कभी-कभी प्रसाद के रूप में गालियां भी मिल जाया करती हैं।
कोई लिखता है-क्या सचमुच आपकी पत्नी आप पर हावी हैं ? कोई लिखती है-आप नारियों को गलत 'पेंट' कर रहे हैं।
कोई पत्नी-पीड़ित दाद देते हैं-वाह, क्या खूब ! बात आपकी सोलह आने सच है।
कोई पति-पीड़िता फरमाती है-जनाब, अपने गिरेबान में तो झांक कर देखिए !
कोई समझदार वृद्ध मुझे अपनी राह बदलने की प्रेरणा देते हैं तो ऐसे नवयुवकों की कमी नहीं जो मेरे घर आकर मेरी 'उन' के हाथ की चाय पीने को उतावले हैं ! कुछ अधिक पढ़े-लिखे लोग मेरी रचनाओं को सिर्फ रचना ही, यानी ख़याली पुलाव समझते हैं। लेकिन ज्य़ादा तादाद ऐसे लोगों की है, जो मेरी रचनाओं में प्रयुक्त 'जग्गो' और 'पुष्पा' के भी हाल-चाल चिट्ठियों में पूछा करते हैं।
मेरी पत्नी संबंधी मान्यताओं को लेकर भी कम विवाद नहीं हैं। 'पत्नी को परमेश्वर मानो' नामक मेरी रचना पर बड़ी विरोधी राय हैं। जब वह छपी-छपी थी तो कई प्रगतिशील महिला-संस्थाओं ने प्रस्ताव स्वीकृत करके मुझे धमकाया था। लेकिन पुराने और बीच के ज़माने की देवियों ने मुझे बधाइयां भी दी थीं। रावलपिंडी के एक कवि-सम्मेलन में तो इस कविता को लेकर अच्छा-खासा हंगामा भी होगया। नारियों का नारा था कविता नहीं होगी, पर पुरुष चीख रहे थे कि होकर रहेगी। एक ग्रेज्युएट महिला तो साहस कर मंच पर चढ़ आई थी और हल्ले-गुल्ले में उस रात कवि-सम्मेलन भी उखड़ गया था। लेकिन इसके विपरीत पिछले चुनावों में जब चंद समझदारों ने मुझे टिकट देने की सोची तो मेरा एक गुण यह भी स्वीकार किया कि महिलाओं के शत-प्रतिशत वोट तो मैं ले ही जाऊंगा।
ये सब रोचक और परस्पर विरोधी बातें मेरी पत्नी को लेकर मेरे बारे में कही जाती हैं। इन बातों को चलते-चलते पूरे बारह वर्ष हो गए। दिल्ली में रहकर यों शाब्दिक अर्थों में तो मैंने भाड़ नहीं झोंका, लेकिन अब तक इन शंकाओं का समाधान भी सही-सही नहीं किया है। इसीलिए ये सारी ग़लतफ़हमियां हैं। लेकिन कल रात अचानक ढाई बजे मेरी आंख खुल गई। सोचा, यों अभी कोई संभावना नहीं है, फिर भी शरीर का क्या ठिकाना ? यह रहस्य कहीं मेरे साथ ही न चला जाए और मेरे पीछे अनुसंधान करने वालों को कही दिक्कत न उठानी पड़े। इसलिए आज इस होली की जलती बेला में, मैं स्वयं रहस्य पर से पर्दा उठाए देता हूं।
मेरे घनिष्ठ-से-घनिष्ठ मित्र, हितैषी और रिश्तेदार भी यह भेद नहीं जानते कि मेरे एक नहीं, दो पत्नियां हैं। एक घर पर रहती है, एक कागज़ पर रहती है।

('व्यास के हास-परिहास' से, सन्‌ 1998)


(Guest)

Sarvesh ji, itna ala title aapne kaise chuna? Kya aap ko bhi NUMEROLOGY mein ruchi ho gayee hai? 2342, 2346, 2325...2375....


(Guest)

truely nicely written and well presented


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