Raj Kumar Makkad (Adv P & H High Court Chandigarh) 25 October 2009
I appreciate Satya prakash ji for providing such valuable information for all of us.
PJANARDHANA REDDY (ADVOCATE & DIRECTOR) 25 October 2009
GREAT CONTRIBUTION !!!!!!!!!!!!, HATS UP.....
N.K.Assumi (Advocate) 25 October 2009
excellent contributions.Thank you!
Swami Sadashiva Brahmendra Sar (Nil) 25 October 2009
पश्चिमी जगत में सबसे गौरवपूर्ण कही जाने वाली इस प्राचीन सभ्यता का मूल्यांकन? साम्राज्य युग ही इसके जीवन का वैभव काल रहा। उत्तरी और दक्षिणी प्रदेशों को संयुक्त करके जो अनेक राजवंश आए उसी की विरूदावली गायी जाती है। इन राजवंशों के साम्राज्य एक 'दैवी व्यवस्था' घोषित किए गए, जिसके शीर्ष स्थान पर देवता सूर्यदेव 'रे' का प्रतिनिधि उनका राजा 'फराउन' या 'फैरो' (Pharaoh) था। इस कारण वह स्वयं देवता था। मृत्यु के बाद वह देवताओं में शामिल हो जाता था और उसकी पूजा पिरामिड अथवा समाधि के सामने मंदिर में होती थी। इसी से बना 'पेर-ओ' (फैरो) अर्थात 'अच्छे देवता'। वे राज्य के सर्वेसर्वा थे, सभी देवताओं के अधिकृत पुजारी और प्रवक्ता। मिस्री बहुदेववाद में फैरो हर देवता की सभी जगह पूजा नहीं कर सकता था, इसलिए वह अपना कार्यभार सहायक पुजारियों को सौंपता था। वे मंदिरों और फैरो के संपत्ति की देखभाल करते थे और युद्घ के समय सेना का संचालन। इन मंदिरों में देवदासियाँ थीं और चाकरी के लिए गुलाम। ये पुजारी कृषि, व्यापार, उद्योग, सभी पर नियंत्रण रखते, उपज का अनुमान लगाकर कर-निर्धारण करते। शासनकर्ता और पुजारी एक ही थे।
कल्पना करें कि कैसा सामाजिक जीवन इस निरंकुश राजतंत्र में रहा होगा जहाँ फैरो ही राज्य था। जिनकी भाषा में 'राज्य' के लिए कोई अलग शब्द न था, क्योंकि वह मानव संस्था थी ही नहीं, वह दैव-प्रदत्त थी। स्पष्ट है कि पुजारी, सामंत (अर्थात पुजारी के अतिरिक्त अधिकारी) और सैनिक बड़े प्रभावशाली थे; सुखोपभोग के अधिकारी थे। दूसरा साधारण नागरिक वर्ग था। ये थे किसान, जो खेती करते और पशु पालते अथवा व्यापारी, पर सबसे बड़ा वर्ग गुलामों का था। सभी सामी सभ्यताओं और साम्राज्यों की भाँति मिस्त्र में भी मानवता का कलंक दास प्रथा थी। अर्थात युद्घ में बनाए गए बंदी, अथवा जो ऋण अथवा कर अदा न कर सके। किसान पर करों का भार लदा रहता और डर सताता था कि यदि कर न दे सके तो फैरो के पास ले जाए जाएँगे, जहाँ गुलाम बनाकर बेगार में जोता जाएगा। व्यवहारत: राजकर्मचारी और सामान्य वर्ग के रहन-सहन में जमीन-आसमान का अंतर था।
सोचें, कैसे फैरो के मृत शरीर को लेपन के बाद सुरक्षित रखने के लिए पिरामिड बने। इन्हें देखकर सुमित्रानंदन पंत की ताजमहल पर पंक्तियाँ हठात् याद आती हैं-
हाय मृत्यु का कैसा अमर अपार्थिव पूजन,
जबकि विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
स्फटिक सौध में हो श्रंगार मरण का शोभन,
नग्न क्षुधातुर वास-विहीन रहे जीवित जन।
मानव, ऎसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति,
आत्मा का अपमान, प्रेत और छाया से रति।
यवन इतिहासकार हिरोडोटस (Herodotus) का कहना है कि गीजा (Giza) के विशाल पिरामिड को १ लाख व्यक्तियों ने २० साल में बनाया था। यह १४६ मीटर ऊँचा, २३० मीटर लंबा और १३ एकड़ भूमि पर खड़ा हो। नेपोलियन ने कहा था कि इन महान पिरामिडों में लगे पत्थरों से यदि एक १० फीट ऊँची और १ फुट चौड़ी दीवार बनायी जाए तो वह पूरे फ्रांस को घेर लेगी। कैसे ये ढाई-ढाई टन के २३ लाख प्रस्तरखंड एक के ऊपर एक चढ़ाए गए होंगे ! कैसे तराशे गए होंगे कि उनके बीच सुई या बाल डालने की भी गुंजाइश नहीं है ! और कितने दास इसमें काम आए ! यह सब विचार कर मन सिहर उठता है। यह कैसी सभ्यता ?
इसी प्रकार इनकी समाधियाँ (मस्तबा)। इन पूर्वजों की समाधियों पर उनके मनोरंजन के लिए ऎसे चित्र उकेरे गए हैं जिन्हें हम अश्लील कहेंगे। इन मस्तबा या पिरामिडों में भोजन, पेय, सुखोपभोग की सामग्री, प्रिय वस्तुओं और कभी-कभी शौचालय की भी व्यवस्था रहती थी। विश्वास था कि हर व्यक्ति का प्रतिरूप 'का' रहता है जो मृत्यु के बाद भी उसे छोड़ता नहीं और जिसे इन सब वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। वैसे 'का' के अतिरिक्त 'आत्मा' को भी वे मानते थे। नौका से पार कर सागर के उस पार पाताल में दुष्ट आत्माएँ चली जाती हैं। पर सदात्माएँ उसके दूसरे कोने में सुखोपभोग करती हैं। एक सीधा-सादा परलोकवाद, जिसमें दार्शनिक उड़ानों का स्थान न था।
प्राचीन मिस्त्र बड़ा 'धार्मिक' (रिलीजियस) कहा जाता है। वह अंधविश्वासों से घिरा था। शायद उनका पंथ साधारण किसान और व्यापारी को संतुष्ट रखने के लिए और फैरो को देवता का प्रतिनिधि बनाने में था। यही नमूना संपूर्ण सामी सभ्यताओं में 'पादशाही' के रूप में प्रकट हुआ, जिसमें साधारण जनता का शासन में सहभागी होने का मार्ग न था। उनका पंथ अथवा मजहब संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ गुणों-समता, मानव-मूल्यों का आदर और सभी का शासनतंत्र में किसी प्रकार सहभागी होना- से दूर था। राज्य सिमटकर फैरो में केंद्रित हो गया और फैरो ही राज्य का पर्याय बना।
मिस्र के कौटुंबिक जीवन का एक पहलू भाई-बहन का आपर में अंतर्विवाह है। संभवतः रक्त-शुद्घता का विकृत अर्थ ले, फैरो अथवा अनुवंशीय पदों पर आसीन लोगों का 'रक्त' मिश्रित न हो, इस भावना से यह रीति चली। स्पष्ट ही भिन्न वर्गों के कर्म में तो अंतर था ही, पर उनके बीच घोर विषमताएँ थीं। जैसे एकरस जीवन की कल्पना भारत में थी, वह वहाँ कभी नहीं आई। इसी से जीवशास्त्रीय और सामाजिक दुष्परिणामों को दुर्लक्ष्य कर यह विकृत परंपरा वहाँ आई।