आजकल सबकी सुनवाई है, पति गरीब की नहीं। यह हाल तो पुरुषों के तथाकथित राज में है। अगर स्त्रियों का राज आया, जो एक दिन अवश्य आएगा, और यही हाल रहा, तो उस दिन हम लोगों की दशा क्या होगी, इसे कोई नहीं कह सकता।
देखिए, मालिक के मुकाबले में आज मजदूर को शह दी जाती है, सवर्ण के मुकाबले में अवर्ण तरज़ीह पाता है और गोरों के मुकाबले दुनिया की सहानुभूति कालों के पक्ष में तो हो सकती है, लेकिन पत्नी के मुकाबले में कोई भी निष्पक्ष न्यायाधीश बेचारे पति की हालत पर विचार करने को तैयार नहीं है। गोया जन्म से ही पतियो को, आजकल की पढ़ी-लिखी व तरक्की-पसंद दुनिया जरायमपेशा मानकर चलती है।
यह मान लिया गया है कि स्त्रियां दबाई गई हैं, सताई हुई हैं और उन्हें उभरने का, आगे बढ़ने का पुरुष वर्ग यानी पति लोग, मौका नहीं देते। देना भी नहीं चाहते। यह भी कहा जाता है कि स्त्री करुणा, ममता और क्षमा की मूर्ति है। यह संतोष, समर्पण और स्नेह जैसे दैवी गुणों से ओतप्रोत है और पुरुष यानी पति के भाग्य में तो बस छल, अविश्वास और स्वार्थ जैसे शब्द पड़े हैं। इन नारों और निष्कर्षों में झूठ-सच किस मिकदार में है, यह आप स्वयं जानते होंगे। मैं इनकी तफ़तीश में नहीं जाना चाहता। दूसरों की आंखों के तिनकों को हटाने से भी क्या लाभ, मैं अपने शहतीर की ख़बर लेता हूं। सौभाग्य से मैं भी एक पति हूं। गृहस्थी की गाड़ी में जुते काफी दिन होगए। अगर मेरी आवाज़ में ज़रा भी दम है और अगर वह आपकी सहानुभूति के स्तर को तनिक भी छू सकती है,तो भाइयो और बहनो, पतियो और पत्नियो, पूरे जोर के साथ, भुजा उठाकर कहता हूं पत्नी नहीं, आज पति सताया हुआ है। शासित और शोषित आज पत्नी नहीं, पति है। पतियों के जुल्म के दिन तो हवा हुए। अगर हमें मानवता की रक्षा करनी है तो पहले सब काम छोड़कर पत्नियों के जुल्मों से असहाय पतियों की रक्षा करनी होगी।
घर में पत्नी के आते ही एक ओर मां, बहन और भाभी ने मुझे खुलेआम जोरू का गुलाम कहना आरंभ कर दिया है। तो भी मुझे यह तसल्ली नहीं कि कम-से-कम घरवालों की इस घोषणा से श्रीमतीजी को तो प्रसन्नता होगी ही। उलटा उनका आरोप यह है कि मैं मां, बहनों और भावजों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता हूं और जैसा कि मुझे करना चाहिए, उनकी तरफदारी नहीं करता। मां कहती है कि लड़का हाथ से निकल गया, बहन कहती है भाभी ने भाई की चोटी कतर ली। भाभी कहती है-देवरानी क्या आई, लाला तो बदल ही गए। लेकिन पत्नी का कहना है कि तुम दूध पीते बच्चे तो नहीं, जो अभी भी तुम्हें मां के आंचल की ओट चाहिए। बताइए, मैं किसकी कहूं ? किसका भला बनूं ? किसका बुरा बनूं ? वैसे तो सभी नारियां शास्त्रों की दृष्टि से पूजनीय हैं, मगर मेरा तो इस जाति ने नाक में दम कर रखा है।
अगर मेरे इस कथन में तनिक भी सच्चाई की कमी महसूस हो, तो मैं इस प्रश्न के फैसले के लिए किसी भी पंचायत में, किसी भी जांच अदालत में ही नहीं, यू.एन.ओ. तक में जाने को तैयार हूं कि वह अपने निष्पक्ष निर्णय के द्वारा संसार के पतियों में जनमत संग्रह कराकर इस बात को बताए कि पति-समाज की दशा संसार में कितनी दयनीय है ? शायद, मेरे इस कथन में कुछ देवियों को अतिशयोक्ति दिखाई दे। कुछ हास्यरस का लेखक समझकर मेरे इस मार्मिक निबंध को भी हंसी में दरगुज़र करना चाहें,पर मैं एकदम गंभीर भाव से