कानून बनाने वाले कानून मे खामिया जन-भूझ कर अपने बचाव के लिए छोडते है। ये कैसा कानून है जहां कोर्ट फांसी की सजा सुना चुका है परंतु फांसी नहीं हो पा रही है। कोर्ट के हाथ भी बंधे हुए है, परंतु क्या कानून अपने विवेक से कोई निर्णय नहीं देता? सूप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि जज को विवेक से काम लेना चाहिए। एक शब्द है “जुड़ीशियल माइंड” क्या इसका प्रयोग भी कोर्ट अपने हिसाब से करता है? यदि हाँ तो “जुड़ीशियल माइंड” शब्द का प्रयोग बंद कर देना चाहिए। भारत को स्वतंत्र हुए 73 वर्ष हो गए, लॉं कमीशन भी बना हुआ है क्या से सब दिखावे के लिए हैं? एक वकील कोर्ट से पहले निर्णय दे रहा है कि फांसी नहीं होने दूंगा। क्या इस पर बार काउंसिल को संग्यान नहीं लेना चाहिए? एक ऐसा कृतय जिसने पूरे भारत को झकजोर कर रख दिया था, ऐसा विभत्स गुणाह , प्रतु एक माँ न्याय को तरश रही है। क्रिमिनल फेनल कोड समाज के खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर भी नयाय नहीं कर प रहा है तो ऐसे कानून को बादल डालो। वकील कह रहे है कानूनी प्रक्रिया बाकी है, क्या ये वकील तब भी ऐसा कहते जब उनके अपने साथ कुछ ऐसा होता? एक माँ और चार माओं की बात की जा रही है, जो सरासर गलत है, और क्या उन माओं ने भी अपने बच्चो के लिए ऐसा कुछ कहा है? यहाँ बात चार माओं की नहीं करोड़ों माओं की है, क्या ये काबिल वकील इतना भी नहीं जानते, समझते, या जानना समझना नहीं चाहते? क्या नाम कमाना इंसानियत से ज्यादा जरूरी है, एक से साथ नयाय की बात की जा रही है दूसरी और अन्याय हो रहा है, उस की कोई प्रवाह नहीं है, ऐसा कानून किस को मंजूर होगा?