जीवन दर्शन. इस समय स्वस्थ रहने से अधिक बीमारी का वक्त बन गया है। भोजन का स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। एक समय था कि हमारी ऋषि परंपरा में रात्रिभोज की व्यवस्था नहीं रहती थी। आज नाइट-लाइफ महत्वपूर्ण है।
लोग नाश्ता अधिक करते हैं, दौपहर भोजन छोड़ कर देते हैं और रात्रि भोज तबीयत से लेते हैं, क्योंकि दोपहर के समय काम ही काम है। देर रात किया हुआ भोजन, अगली सुबह की पूजा योग-ध्यान को प्रभावित करेगा ही, फिर अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। शरीर से जुड़ी बीमारियों का इलाज तो धन देकर हो सकता है, लेकिन बीमारी जब मन को लग जाए, तब ठीक होने में धन भी काम नहीं आता और मन की बीमारी लगती सभी को है।
अध्यात्म कहता है कि असाध्य रोग कोई नहीं होता। हर व्याधि का इलाज है, असाध्य शब्द ही आध्यात्मिक जगत में मान्य नहीं है। सब कुछ साध्य है, व्यक्ति घोर पापी हो, तो भी सुधर सकता है, क्योंकि सारा मामला रूपांतरण का है। जैसे ही हम मानसिक रूप से बीमार होते हैं, हमारे आसपास दुख का संसार बन जाता है।
यदि हम बीमारी से ठीक से परिचित न हों, तो दुख का कारण दूसरों में ढूंढ़ते हैं। जैसे ही हम यह समझते हैं कि हम पर जो दुख आया है, यह दूसरे के कारण है हम अपने आप को थोड़ा आरामदेह स्थिति में महसूस करते हैं, लेकिन अध्यात्म कहता है हमारे दुखों का कारण हम ही हैं। जैसे ही यह विचार चलता है हमारे अहंकार को चोट लगती है, क्योंकि यह मानना बड़ा कठिन है कि हम ही अपने आप को दुखी किए जा रहे हैं।
झूठी सांत्वना दे-देकर हम इस बीमारी का इलाज करते हैं। दुख कहीं और से आ रहा है, यह दुनिया दुख ही पहुंचाती है, अन्यथा हम तो अच्छे आदमी हैं, यह विचार हमें ठीक नहीं होने देता। जैसे ही हम दुख का कारण स्वयं में ढूंढ़ने लगते हैं, बस यहीं से परिवर्तन का दौर शुरू हो जाता है। हमारे दुख का कारण हम हैं यह खोज, मान्यता, समझ है तो कठिन, पर एक बार जिंदगी में उतर जाए, तो क्या दुख, क्या सुख सभी में आनंद रहेगा।
लोग नाश्ता अधिक करते हैं, दौपहर भोजन छोड़ कर देते हैं और रात्रि भोज तबीयत से लेते हैं, क्योंकि दोपहर के समय काम ही काम है। देर रात किया हुआ भोजन, अगली सुबह की पूजा योग-ध्यान को प्रभावित करेगा ही, फिर अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। शरीर से जुड़ी बीमारियों का इलाज तो धन देकर हो सकता है, लेकिन बीमारी जब मन को लग जाए, तब ठीक होने में धन भी काम नहीं आता और मन की बीमारी लगती सभी को है।
अध्यात्म कहता है कि असाध्य रोग कोई नहीं होता। हर व्याधि का इलाज है, असाध्य शब्द ही आध्यात्मिक जगत में मान्य नहीं है। सब कुछ साध्य है, व्यक्ति घोर पापी हो, तो भी सुधर सकता है, क्योंकि सारा मामला रूपांतरण का है। जैसे ही हम मानसिक रूप से बीमार होते हैं, हमारे आसपास दुख का संसार बन जाता है।
यदि हम बीमारी से ठीक से परिचित न हों, तो दुख का कारण दूसरों में ढूंढ़ते हैं। जैसे ही हम यह समझते हैं कि हम पर जो दुख आया है, यह दूसरे के कारण है हम अपने आप को थोड़ा आरामदेह स्थिति में महसूस करते हैं, लेकिन अध्यात्म कहता है हमारे दुखों का कारण हम ही हैं। जैसे ही यह विचार चलता है हमारे अहंकार को चोट लगती है, क्योंकि यह मानना बड़ा कठिन है कि हम ही अपने आप को दुखी किए जा रहे हैं।
झूठी सांत्वना दे-देकर हम इस बीमारी का इलाज करते हैं। दुख कहीं और से आ रहा है, यह दुनिया दुख ही पहुंचाती है, अन्यथा हम तो अच्छे आदमी हैं, यह विचार हमें ठीक नहीं होने देता। जैसे ही हम दुख का कारण स्वयं में ढूंढ़ने लगते हैं, बस यहीं से परिवर्तन का दौर शुरू हो जाता है। हमारे दुख का कारण हम हैं यह खोज, मान्यता, समझ है तो कठिन, पर एक बार जिंदगी में उतर जाए, तो क्या दुख, क्या सुख सभी में आनंद रहेगा।