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Swami Sadashiva Brahmendra Sar (Nil)     04 December 2010

Vipashyanaa - Unique gift by Lord Budha

From Hindustan Daily :
 
विपश्यनाः सहज खिलता है मन का कमल
स्वामी चैतन्य कीर्ति
First Published:03-12-10 09:37 PM

जब से मेरे जीवन में विपश्यना आई है, मेरा जीवन बदल गया है। यह विपश्यना किसी स्त्री का नाम नहीं है- यह एक ध्यान-पद्धति का नाम है, जो भगवान बुद्ध के समय से चली आ रही है।

ध्यान की सैकड़ों विधियां हैं और इनमें से अधिकांश विधियों को करने में कुछ पुरुषत्व की जरूरत होती है, लेकिन विपश्यना ध्यान की एक स्त्रैण विधि है, जिसमें कुछ करना नहीं होता है, सिर्फ होना होता है। इसमें आपकी उपस्थिति, आपका होना ही पर्याप्त है फिर जो कुछ भी होता है अपने से होता है।

आज सुबह-सुबह बिस्तर पर पड़े-पड़े पक्षियों का कलरव सुन रहा था और सुनते-सुनते विपश्यना हो रही थी। कल रात बिस्तर पर जाने के पहले एक मित्र झगड़ रहा था, वह भी मैं सुन रहा था और विपश्यना हो रही थी। झगड़े के बाद बिस्तर पर सोने चला गया, मन में बहुत विचार चल रहे थे और उन्हें मैं सिर्फ देख रहा था और विपश्यना हो रही थी। मन में उठे विचारों का कोलाहल धीरे-धीरे स्वयं शांत हो गया और सहज ही नींद लग गई। शरीर को विश्राम में और मन को शांति में उतरते हुए देखने में विपश्यना हो रही थी।

श्वास का आना-जाना स्वयं हो रहा है। दुनिया में हमारे आगमन के पहले दिन से हो रहा है। श्वास के इस आने-जाने को देखना, श्वास ने नासापुटों को स्पर्श किया और वह भीतर गई। श्वास के साथ आप कुछ कर नहीं रहे, यह अपने से ही आपके भीतर जा रही है। श्वास ने आपके फेफड़ों में प्रवेश किया, आपने देखा। श्वास ने नाभिस्थल का स्पर्श किया, आपने देखा। फिर श्वास ने वापस लौटने की यात्रा शुरू की, आपने देखा। श्वास स्वयं बाहर आ गई, आपने देखा। इस पूरी प्रक्रिया में आपने कुछ भी नहीं किया, सिर्फ देखा, देखना निरंतर बना रहा। 

आप श्वास पर साक्षी हो गए, साक्षी-भाव बना रहा तो शरीर के तल पर विपश्यना ध्यान हो गया। भगवान बुद्ध ने इसे अनापान सतीयोग का नाम दिया है। योग अर्थात जुड़ना। आप श्वास के आने-जाने के साथ जुड़े रहे।

श्वास की प्रक्रिया के प्रति साक्षी होने के साथ-साथ और भी कुछ इसके आयाम हैं शरीर के तल पर। आप बैठे हैं, चल रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, किसी से वार्तालाप हो रहा है या सड़क पर गाड़ियों का बहुत शोर है, आपके शरीर में कुछ उत्तेजनाएं हो रही हैं- आप इस सबको स्वीकार भाव से देख रहे हैं, सुन रहे हैं, आप कोई हस्तक्षेप नहीं करते, केवल देखते हैं और अगर कोई हस्तक्षेप करते भी हैं तो उसे भी देखते हैं- तो इस सारे खेल के भीतर विपश्यना हो रही है। लेकिन यह विपश्यना का शारीरिक तल है।

ओशो कहते हैं कि अगर आप इस तल पर होश रखने में, साक्षी-भाव बनाए रखने में कुशल हो गए तो फिर आप और सूक्ष्म तल पर विपश्यना में प्रवेश कर सकते हैं। वह तल है मन का-मन में निरंतर चलते विचारों का। 

आप विश्रामपूर्वक बैठे हैं या अपने बिस्तर पर लेटे हैं। विचारों का रेला चला आ रहा है। आपने उन्हें बुलाया नहीं है; वे बिना बुलाए मेहमानों की भांति चले आ रहे हैं। आप उनके साथ कुछ कर नहीं सकते। डंडा पकड़ कर उन्हें भगाने में नहीं लग जाना है। ऐसे आप उन्हें कभी भगा भी नहीं पाएंगे। उन्हें भी आप ऐसे ही देखें जैसे आप अपनी श्वास को देख रहे थे। देखते ही देखते, निरंतर देखते रहने से विचार स्वयं शांत हो जाते हैं और एक निर्विचार भाव-दशा में आपका सहज ही प्रवेश होता है।

विचार के तल पर होश और जागरण के बाद अब आप और सूक्ष्म तल पर उतर सकते हैं-अपनी भावनाओं के तल पर। आपके भीतर क्रोध की, ईर्ष्य़ा की, कामवासना की कोई लहर उठी। आप इस लहर के उठने के समय जागे रहे तो यह लहर स्वयं शांत हो जाएगी।

अगर आपने होश न रखा तो यह लहर एक तूफान, एक झंझावत का विकराल रूप धारण कर लेगी और उसमें आप कहां खो गए आपको पता भी नहीं चलेगा। ऐसे ही सारी दुनिया में लोग तूफानों के थपेड़े खा रहे हैं और उनमें खो गए हैं। इसलिए दुनिया एक विशाल-विकराल पागलखाना बन गई है। इसलिए सब प्रकार की भावनाओं की उठती लहरों के समय जागे रहना ही विपश्यना का सूक्ष्मतर तल है।

अगर आप शरीर के तल पर, मन के तल पर और हृदय के तल पर, सब प्रकार की भावनाओं के तल पर होश में बने रहे तो आपका साक्षी-भाव परिपक्व हो जाएगा और चौथी भावदशा को उपलब्ध हो जाएंगे। यहां आकर आपकी विपश्यना शुद्धतम हो गई। फिर एक दिन जब मृत्यु आएगी- श्वास बाहर जाएगी और लौटेगी नहीं और आप केवल उसे देख रहे होंगे- तो मृत्यु का कोई भय नहीं पकड़ेगा, आपका अमृत में प्रवेश होगा। आपके भीतर विपश्यना का कमल खिल जाएगा।

भगवान बुद्ध के पूर्व भी यह ध्यान-विधि अस्तित्व में थी। विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने अपनी प्रियतमा पार्वती को इस विधि के अनेक आयामों की अनुभूति कराई। लेकिन गौतम बुद्ध ने इस विधि को एक वैज्ञानिक   आधार दिया, उनके हजारों-लाखों शिष्यों ने इसे व्यापक पैमाने पर अपनाया। आधुनिक युग में संबुद्ध रहस्यदर्शी जे. कृष्णमूर्ति ने च्वायसलेस अवेयरनेस के नए नाम से इसे अपनाया और सिखाया। ओशो ने इस विधि का पूर्ण परिष्कार किया और सक्रिय ध्यान जैसी विधियों के माध्यम से इस कोमल स्त्रैण ध्यान-विधि की एक सशक्त भूमिका तैयार की।



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 9 Replies

Bhartiya No. 1 (Nationalist)     04 December 2010

The Buddha was a son of the rulers Sakyas.  He was married at the age of 16 and lived in luxury and comfort sheltered from the harsh realities of life.  When he was 29 he realized that men are subject to old age, sickness and death.  He became aware of the suffering inherent in existence.  He resolved to give up princely life and become a wandering ascetic (samana) in search for the Truth.

 

 

With the two of samanas he attained mystical states of elevated consciousness but he failed to find the Truth.  He continued his search and was joined by five ascetics in a grove near Uruvela, where he practiced sever austerities and self-mortification for six years.  When he fainted away in weakness, he abandoned ascetic practices to seek his own path to Enlightenment.  Discarding the teachings of his contemporaries, through meditation he achieved Enlightenment, or ultimate understanding.  There after the Buddha instructed his followers in the dharma (truth) and the "Middle Way" a path between worldly life and extremes of self-denial.  

 

 

The essence of the Buddha's early preaching was said to be the four Noble truths: 1) life is fundamentally disappointment and suffering.  2) suffering is a result of one's desires for pleasure, power, and continued existence; 3) to stop disappointment and suffering on must stop desiring; and 4) the way to stop desiring and thus suffering is the Noble eight fold path - right views, right intention, right speech, right action, right livelihood, right effort, right awareness and right concentration.  The realization of the truth of anatman (no eternal self) was taught as essential for the indescribable state of release called nirvana.

 

Source:

https://www.lotussculpture.com/buddha1.htm

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Bhartiya No. 1 (Nationalist)     04 December 2010

Buddha's Teachings

Lord Buddha preached: "We will have to find out the cause of sorrow and the way to escape from it. The desire for sensual enjoyment and clinging to earthly life is the cause of sorrow. If we can eradicate desire, all sorrows and pains will come to an end. We will enjoy Nirvana or eternal peace. Those who follow the Noble Eightfold Path strictly, viz., right opinion, right resolve, right speech, right conduct, right employment, right exertion, right thought and right self-concentration will be free from sorrow. This indeed, O mendicants, is that middle course which the Tathagata has thoroughly comprehended, which produces insight, which produces knowledge, which leads to calmness or serenity, to supernatural knowledge, to perfect Buddhahood, to Nirvana.

"This again, indeed, O mendicants, is the noble truth of suffering. Birth is painful, old age is painful, sickness is painful, association with unloved objects is painful, separation from loved objects is painful, the desire which one does not obtain, this is too painful - in short, the five elements of attachment to existence are painful. The five elements of attachment to earthly existence are form, sensation, perception, components and consciousness.

"This again, indeed, O mendicants, is the truth of the cause of suffering. It is that thirst which leads to renewed existence, connected with joy and passion, finding joy here and there, namely, thirst for sensual pleasure, and the instinctive thirst for existence. This again, indeed, O mendicants, is the noble truth of cessation of suffering, which is the cessation and total absence of desire for that very thirst, its abandonment, surrender, release from it and non-attachment to it. This again, indeed, O mendicants, is the noble truth of the course which leads to the cessation of suffering. This is verily the Noble Eightfold Path, viz., right opinion, etc."

Source:

https://www.dlshq.org/saints/buddha.htm

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Kanaksinh P.Boda (Educationist/Lawyer)     04 December 2010

Vipasana (or Vipasyana in Sanskrit) Shibirs are organised by Shri Goenkaji, a all Vipasana Centers in the worl and each course is of 10 days inhouse where some times he himself teaches this oldest method of meditation which he learnt from his Guru in Burma. It is is difficult to get admission immediately due to waiting list but normally it takes 3 months. It is worth attending.

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Swami Sadashiva Brahmendra Sar (Nil)     04 December 2010

Both abandoned their wives

Ram ousted his wife from home – Buddha left his wife and home.

Ram abandoned his wife for social and political reasons

but, Buddha for no reasons or for some unknown private reasons !

Hemant Agarwal (ha21@rediffmail.com Mumbai : 9820174108)     04 December 2010

INTROSPECT  VERY VERY DEEPLY ON THE FOLLOWING,  (after drinking Boost or Bournvita)

 

The reality is that both  Ram & Buddha,  have conclusively proved that :

 

IF YOU ABANDON YOUR WIFES,  THEN THE WORLD CLASSIFIES YOU AS  :

 

a)   a Lord, compelling the ordinary people to worship them

 

b)  gives you unlimited respect, life-long

 

c)  You can attain Nirvana,  Eternal peace  &  Containment,  If you "abandon"  your wives.

 

d)  You can escape from  Surffering, Disappointment, 498a & DVAct, Maintainence etc...

 

AND THE ABOVE LORDS (RAM  & BUDDHA)  HAVE GUIDED US AND SET A PRECEDENT AND GUIDED US TO ABANDON WIFE  AND ATTAIN   "NIRVANA  &  ETERNAL PEACE".
(contradictions challenged)

 

Keep Smiling .... Hemant Agarwal


 

Swami Sadashiva Brahmendra Sar (Nil)     04 December 2010

"भगवान बुद्ध के पूर्व भी यह ध्यान-विधि अस्तित्व में थी। विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने अपनी प्रियतमा पार्वती को इस विधि के अनेक आयामों की अनुभूति कराई। लेकिन गौतम बुद्ध ने इस विधि को एक वैज्ञानिक   आधार दिया..."

- quoted from original post

Bhartiya No. 1 (Nationalist)     04 December 2010

Lord Ram didn't abandoned Goddess,Sita from his heart, and statue of Goddess,Sita was always there with him in all the functions.and taken care of her. It was preplanned by him. Later he adopted Luv and Kush Happily. But Goddess,Sita rejected the request Of Lord Rama to return to him and preffered to returns to mother earth.

 

Lord Ram always followed truth and non violence against all the odd and difficult circumtances. His life was full of hradship, difficulties and misery.

Swami Sadashiva Brahmendra Sar (Nil)     05 December 2010

 

one of our friends saying in another thread that Buddha had returned to home to reconcile with his wife.

According to shastric code of conduct (Manu smriti), returning to home after taking sanyaas was not permissible and it was considered very serious sin. Reason for it  might have been to preserve the high morals of sanyaas i.e. before proceeding for sanyaas, a person had to think again and again and to evaluate his will power and competency for sanyaas. One of our  team member is saying that Buddha had not sufficient will power therefore he might have returned to home and might not have successful in adjusting in Grihasth life and then again left the home !!!

We are not sure what was the reason !!!

- Team Tripathi

Kanaksinh P.Boda (Educationist/Lawyer)     05 December 2010

In most of the cases,  people have evaluated in high esteem the foregoing of worldly pleasure by those who had it in ample with them and hence it is necessary to have to forego. Hence these kings who have forgone all their luxuries of life have recieved high place in the heart of a common man. How can one forego something which he does not have. So it is neccesary to acquire and then let it go, as is seen here.


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