कै होरी सर र र र- अशोक चक्रधर की हास्य कविता
पोस्टेड ओन: March,12 2011
होली आली रे …………….20 मार्च को होली आ रही है. अभी से एक बढ़िया सा गीत याद कर लो और होली के दिन सबसे साथ मिलकर खुब गुनगुनाना. और तब भी मन ना भरे तो अशोक चक्रधर की अन्य रचनाएं गूगल बाबा से ले लेना. यह प्रसिद्ध रचना हमने भी गूगल बाबा से ली है और यह अशोक चक्रधर जी की रचना है. होली में तो वैसे भी हमारे लेखक बहुत मनमौजी हो जाते हैं यह उसी की एक उदाहरण है.
होली के मौसम में सारारा रा रा … की लय तो हर तरफ देखने को मिलती है पर हास्य की चाश्नी में डूबी रचना का अलग ही मजा है दोस्तों.
दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूँगी सान कीच में कान-मरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।
लुक्कन के लग जाय लुकाटी, लाठी कस कै मारी रे,
कारी सब तेरी करतूत कि म्हौं ते निकसैं गारी रे,
दरोगा बनैं, डरप चौं गयौ, घुस गयौ घर र र र।
कै होरी सर र र र।
दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे,
पीटौ खूब नासपीटे कूँ, बोलै गर र र र।
कै होरी सर र र र।
सीधौ-सीधौ फिरै डगर में, मन में लडुआ फूटै रे,
मौहल्ला में हल्ला सौ मचौ, निपुतौ रडुआ टूटै रे,
लुगइयन पै मटकावै सैन, मिटे तू मर र र र।
कै होरी सर र र र।
डारौ जात-पात कौ ज़हर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे,
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र।
कै होरी सर र र र।
छेड़ै भली कली गलियन में, जानैं भली चलाई रे,
तोकूं छोड़ ग़ैर के संग भज गई तेरी लुगाई रे,
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र।
कै होरी सर र र र।
भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाईं रे,
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र।
कै होरी सर र र र।
गारी हजम करीं हलुआ-सी, ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खवाय, बहुरिया आज न आई रे,
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।
सासू बहू है गई धाँसू, आँसू मती बहावै री,
घर तो भोर भए की खिसकी, खिसकी तेरी उड़ावै री,
बल बच गए मगर रस्सी तौ गई ज़र र र र।
कै होरी सर र र र।
पोलिंग में बिक जावै मोल, न ऐसी मेरी जिठानी रे,
खोलै पोल ढोल के संग, रंग में ऐसी ठानी रे,
अटल, केसरी, इंदर, लालू, गए डर र र र।
कै होली सर र र र।
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