आस्तिकता के विवाद में एक अन्तरिम आवेदन: आज दिनांक १६/११/२००९ को सामजिक - विधिक प्रचेतन समिति के कार्यकारिणी की बैठक में सर्व सम्मति से एक प्रस्ताव पारित करते हुए जन साधारण एवं विद्वत समाज से यह अपील की गई कि चूँकि, ईश्वर की अवधारणा समाज के लिए सर्वथा हितकारी है , और चूँकि, उसके अस्तित्व में मानव अनादि काल से विश्वास करता आ रहा है, अतएव, जब तक उसके अस्तित्व को पूर्णतया असिद्ध नहीं कर दिया जाता तब तक उसके अस्तित्व को सिद्ध समझा जाय और इसके विपरीत टिप्पड़ी करके भ्रम फ़ैलाने वालों को विनम्रता पूर्वक रोका जाय।
उपरोक्त प्रस्ताव समिति के राष्ट्रीय संयोजक डॉ वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी के विधियोग ब्लॉग के एक लेख के आधार पर पारित किया गया जो निम्नवत है:"मानव सभ्यता का सबसे बड़ा एवं रहस्यमय विवाद है - ईश्वर का अस्तित्व ! इस विषय पर सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाधिक गूढ़ समझे जाने वाले ग्रन्थ "ब्रह्मसूत्र" में भी वेदव्यास जी ईश्वर के अनस्तिव के पक्ष में रखे गए "कर्मसूत्र" के तर्कों को निराधार या सतही नहीं साबित कर सके हैं । चूँकि उन्हें आस्तिकता की वकालत करनी थी इसलिए, उन्होने आस्तिकता के पक्ष में अधिक प्रभावशाली तर्क प्रस्तुत किया । ब्रह्मसूत्र एवं सभी पुराणों के लिखने के बाद भी जब उनका ऊहापोह और उद्वेग शांत नहीं हुआ तो उन्होंने निरपेक्ष विश्वास से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत की रचना की और तब उन्हें मानसिक शान्ति मिली । यह एक स्वकृत मनोचिकित्सा थी जिसे उन्होंने नारदजी के परामर्श पर किया। ध्यातव्य है कि , नारदजी "भक्तिसूत्र" के रचयिता हैं, अर्थात् निरपेक्ष विश्वासी है। वेदव्यासजी के विचारों में श्रीमद्भागवत की रचना से पूर्व बुद्धि की प्रधानता थी। ब्रह्म या ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन वह तर्क से कर रहे थे । किंतु, तर्क अशांति को आकर्षित करता है और विश्वास शान्ति को । अतएव, उन्हें भक्तिशास्त्र अर्थात् विश्वास आधारित ग्रन्थ श्रीमद्भागवत लिखने के बाद ही चैन मिला।
श्री कृष्ण बहुत बड़े जादूगर एवं मनोचिकित्सक थे । उन्होंने अर्जुन के मोह एवं अनिर्णय की मनोचिकित्सा की और इसके लिए ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन किया । इतना ही नहीं, सम्मोहन चिकित्सा को अधिक सहज एवं प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने स्वयं को ही ईश्वर कहा । गीता उपदेश के अंत तक उन्हें लगा कि युद्ध के लिए अर्जुन का मनोबल अभी भी दृढ़ नही हो सका है, तब उन्होंने कहा कि, - छोड़ो , अब तक जो-जो मार्ग मैंने बताये वे सब भूल जाओ ! सभी धर्मों को छोड़कर तुम केवल मुझमें अपना ध्यान केंद्रित करो ! मैं तुम्हे सभी पापों से बचा लूँगा क्योकि, मैं ईश्वर हूँ ! उन्होंने यह भी कहा कि मैंने जो कुछ तुम्हे बताया यह सब किसी अविश्वासी या ईश्वर निंदक को नहीं बताना ( ध्यातव्य है कि, किसी अविश्वासी या ईश्वर निंदक को न बताने की शर्त सभी अथर्वशीर्षों, पुराणों एवं अन्य सनातनी धर्मग्रंथों में प्रावधानित है )।
फिलहाल, ईश्वर के अस्तित्व के प्रश्न पर कभी भी न तो कोई सर्वसम्मत निर्णय हो सका है न ही भविष्य में हो सकेगा। समाज को इस विवाद के लाभ एवं नुकसान दोनों हुए हैं। किंतु लाभ ही अधिक हुआ है - विवाद से भी और उससे अधिक आस्तिकता के समर्थन से। यदि ईश्वर की अवधारणा न होती तो न तो किसी सामाजिक व्यवस्था कीस्थापना हो पाती और न ही मनुष्य जीवन के तनावों का सामना कर पाता।
अतएव, मनोविज्ञान एवं समाज विज्ञान की दृष्टि से एक जनहितकारी प्रस्थापना प्रस्तुत करते हुए मै कहना चाहता हूँ कि:
" ईश्वर है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। किंतु, यह बात पूरी दृढ़ता से कह सकता हूँ कि, ईश्वर की अवधारणा सर्वथा समाज के हित में है।"
पुनश्च, प्रथम दृष्टया, आस्तिकता का पक्ष काफी प्रबल है । सुविधा का संतुलन एवं विद्वानों का बहुमत भी आस्तिकता के पक्ष में ही है । इसके विरोधी धारणा के प्रसार से समाज की एवं मानव सभ्यता की अपूरणीय क्षति होगी। इस प्रकार, प्रस्तुत वाद में अन्तरिम निषेधाज्ञा जारी करने के लिए सभी मूलभूत शर्तें एवं परिस्थितियां विद्यमान हैं ।
अतएव, जनता जनार्दन एवं विद्वत समाज से मेरा निवेदन है कि - उक्त विवाद के लम्बित रहने तक ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता दी जाय अर्थात् जब तक उसे पूर्णतया असिद्ध नहीं कर दिया जाता तब तक उसके अस्तित्व को स्वीकार किया जाय और अन्यथा कोई बात प्रचारित करके भ्रम फैलाने से गैर विश्वासियों को रोका जाय।"