दोस्तो ! पुलिस का १८६१ का अंग्रेजी क़ानून रद्द करने और नया लोकतान्त्रिक पुलिस क़ानून बनाने के लिए अपना सक्रिय योगदान दें ताकि जनता को सरकार के तानाशाही दमन से मुक्ति मिलकर कानून का शासन लागू हो सके और वास्तविक आज़ादी तथा लोकतंत्र की बहाली हो सके.
दोस्तो ! पुलिस दमनकारी क्यों है? अंग्रेजों के बनाए पुलिस तंत्र को लोकतान्त्रिक अधिकार नहीं मिल पाये हैं कि पुलिस स्वतंत्र रूप से संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर काम करे बल्कि उसी अंग्रेजी पुलिस अधिनियम को बनाए रखा गया है जिसमें पुलिस सिर्फ अपने सरकारी मालिकों के आदेशों के अधीन काम करती थी. अतः उस अंग्रेजी पुलिस अधिनियम को पूर्णतः निरस्त करके लोकतान्त्रिक पुलिस क़ानून जब तक नहीं बनाया जायेगा तब तक पुलिस सत्ता में बैठे लोगों की गुलाम बनी रहेगी और सत्ता में बैठे लोग जनता का दमन कराते रहेंगे.
संविधान के अनुच्छेद १९ (१) (अ) और (ब) में नागरिकों को अधिकार दिया है कि नागरिकों को बोलने और अपनी भावनाएं दर्शाने का अधिकार है और नागरिक बोलने और अपनी भावनाएं प्रदर्शित करने के लिए शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित हो सकते हैं. पर कहाँ? जहाँ भी नागरिक एकत्रित होना चाहते हैं वहाँ धारा १४४ घोषित कर दी जाती है और फिर छोड़ दी जाती है पुलिस नागरिकों का दमन करने.
सरकार में बैठे लोग लूट मचाएं, भ्रष्टाचार करें तो नागरिकों का भडकना स्वाभाविक है. सत्ता के नशे में चूर सत्ताधारी पार्टी के अनुचित कार्यों के विरुद्ध आवाज उठाना नागरिकों का संवैधानिक मूल-अधिकार है. लेकिन हमारे भारतीय समाज की विडम्बना है कि हम धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, वर्ग, वर्ण, लिंग इत्यादि के मानवता के लिए घातक भेद-भावों में बंटकर अपने अपने स्वार्थ में उलझे रहते हैं. बस हमें सब कुछ मिल जाये दूसरा चाहे मरता रहे सो मर जाये. सो उभर आये इन संकीर्ण मुद्दों पर भावनाएं भडकाने वाले नेता और जिनकी जैसी मानसिकता रही वे लोग देने लगे अपना कीमती वोट इन नेताओं को. ये नेता भी समझ गए कि स्वार्थी लोगों को चुनाव के वक्त भाषण पिला दो और सब्जबाग दिखा दो और जीतने लायक वोटों की जुगाड़ करो बस ले दे के यही राजनीति हो रही है. दोस्तो ! इतने वर्षों का अनुभव है चुनावों की राजनीति का हमारे सामने. ज़रा सोचो कि क्या भला किया इन नेताओं ने जिन्हें आपने धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, भाषा के आधार पर वर्ण-वर्ग के आधार पर अपना समझकर वोट दिया? क्या भला किया इन्होंने अपने धर्म के लोगों का? क्या भला किया इन्होंने अपनी जाति के लोगों का? क्या भला किया इन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों का? क्या भला किया इन्होंने अपनी भाषा के लोगों का? बस आपके वोट लेकर ५ साल तक सिर्फ यही जुगाड़ लगाते रहे कि अगली बार फिर चुनाव जीतना है, और अगली बार यदि चुनाव नहीं जीते तो अपनी सात पुश्तों के लिए तो? सो येन-केन-प्रकारेन धन इकठ्ठा करने में जुट जाते हैं. कौन परवाह करता हैं फिर उन लोगों की जिन्होंने इन्हें वोट दिए थे??? हाँ, ये एक काम जरूर करते हैं और वो ये कि ये जो भी काले काम करें उस पर जनता यदि भड़क जाये तो जनता को कुचलने के लिए इन्हें जरुरत होती है ऐसी पुलिस की जो सिर्फ इनके आदेशों का पालन करे सिर झुकाकर. इन्हें गुलाम पुलिस चाहिये.
दोस्तो ! आततायी सरकार के खिलाफ पहला संघर्ष किया था जनता ने सन १८५७ में. तब हिल गई थी आततायी सरकार. तब सरकार ने सोचा कि एक ऐसी पुलिस चाहिये जो सिर झुकाकर बिना अपना विवेक इस्तेमाल किए उनके आदेशों को माने और जनता को कुचल डाले. तो उस वक्त की अंग्रेजी सरकार ने १८६० में एक कमेटी बनाई और उस कमेटी ने जो सुझाव दिए उसके आधार पर बनाया गया “१८६१ पुलिस अधिनियम”. तब की सरकार क्योंकि विदेशी सरकार थी सो उन्हें कोई भावनात्मक लगाव नहीं था पुलिस वालों से और वो पुलिस वालों को भी भारतीय होने के कारण गुलाम ही बनाए रखना चाहते थे जो सिर झुकाकर उनके जायज-नाजायज आदेश माने. सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने वाली जनता और पुलिस के टकराओ में चाहे जनता मरे या पोलिस इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं था. दोस्तो ! यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि देश से अंग्रेज तो चले गए पर यह सिर्फ सत्ता का हस्तातान्तरण हुआ है. विदेशियों की जगह देसी सरकार आ गई. परन्तु शासन व्यवस्था नहीं बदली. उसी तरह दमनकारी शासन-व्यवस्था काम कर रही है और पुलिस उसी तरह सरकार की गुलाम बनाकर रखी गई है ताकि जो लोग सत्ता में बैठकर जायज-नाजायज काम करें उन्हें सुरक्षा मिलती रहे. उससे भी बड़ी विडम्बना यह है दोस्तो कि सरकार और पुलिस हमारे पैसे से हम पर ही शासन करते हैं. लोकतंत्र के नाम पर जनता को सिर्फ दिया गया है वोट का अधिकार सो वोट देकर ५ साल तक सरकार के जूतों के नीचे दबी रहती हैं जनता.
दिल्ली पुलिस कांस्टेबल सुभाष चंद्र तोमर की असामयिक और दर्दनाक मौत से उठे मानवीय यक्ष-प्रश्न !!
१. क्या पुलिस कांस्टेबल सबसे पहले हमारी तरह इन्सान हैं या नहीं? क्या उनके कोई मानव-अधिकार हैं या नहीं? क्या इन्हें भूख-प्यास नहीं लगती? क्या इन्हें घर-परिवार का सुख नहीं चाहिये? क्या इन्हें काम के साथ-साथ यथोचित आराम नहीं चाहिये? क्या इन्हें थकान नहीं होती? क्या इन्हें बीमारी नहीं होती? क्या इन्हें दर्द नहीं होता? क्या इनके शरीर में हमारी तरह कोई “मन” या “मानवीय इच्छाएं” नहीं होतीं? क्या ये लोहे के बने रोबोट हैं या रबर के गुड्डे हैं कि इनके तथाकथित सीनीयर आफिसर जब चाहें जैसे चाहें इनका इस्तेमाल करें? पुलिस कांस्टेबलों के दाहिने हाथ और कंधे की जाँच कराई जाये तो उनके जोड़ों में खांचे बने नज़र आयेंगे जो सिर्फ अपने सो काल्ड सीनियरों को सैल्यूट मारते मारते बन जाते होंगे? ये “सैल्यूट” कौन सी “जनसेवा” है जिसके नीचे ये बेचारे निरीह बना दिए गए हैं और बस रिकार्डेड खिलौनों की तरह “जी साहब – जी साहब” करने पर मजबूर कर दिए गए हैं??? क्या यह सब अमानवीय और अलोकतांत्रिक नहीं है???
२. क्या पुलिस कांस्टेबल हमारी तरह भारतीय नागरिक हैं या नहीं? क्या इनके भी कोई “लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकार हैं या नहीं? किसी छुटभैये नेता का पैर झूठी अकड़ दिखाने के चक्कर में आसमान की तरफ मुँह उठाये चलने के कारण सड़क के छोटे से गड्ढे में पड़ जाये तो निकालने लगते हैं मोर्चा सरकार के खिलाफ और शुरू कर देते हैं तोड़-फोड़, जाम करने लगते हैं सड़कें, गुंजा डालते हैं आसमान नारों से “ये सरकार निकम्मी है – तानाशाही नहीं चलेगी”... इस सब पर लिखूं तो बड़े बड़े ग्रन्थ भर जायेंगे सो समझने के लिए इतना काफी है. अब ज़रा देखिये कांस्टेबलों के “लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों” की स्थिति. इन्हें दिन के २४ घंटे, सप्ताह के सातों दिन महीने के तीसों दिन और साल के ३६५ दिन उँगलियों के इशारों पर नचाया जाता है..
पुलिस वाले ७२ - ७२ घंटे ड्यूटी करते है उस वक़्त कौन आकर देखता है कि उनके बीवी बच्चे उनसे मिलने को तरस रहे है और जनता अपने घरो में बैठी सुरक्षित होली दिवाली मना रही है पुलिस वालो की कुर्बानियों का क्या सिला मिलता है उन्हें.
1. The police officer is denounced by the public
2. Criticised by the Preacher
3. Rediculed by the movies
4. Berated by newspaper
5. Unsupported by the prosecution & judges
6. He is shunned by the respectable
7.he is expose to countless temptation & dangers
8.he is condemned while he enforces the law & dismissed when does not
9. He is suppose to possess the quality of a doctor, soldier, lawyer, diplomat with the remuneration less than that of a daily labourer.
दोस्तो ! पुलिस रिफार्म्स के लिए आवाज़ को अपनी ताकत दें, यहाँ अपने सुझाव दें, हाथ बढ़ाएँ.
https://www.facebook.com/groups/597170316975685/permalink/597203020305748/